Saturday, 8 December 2012

दीप आस का----------

दीप आस का----------

दीप आस का जला
स्वप्न को संवारते
चल दिए थे राह पे
नवीन को निहारते

कोशीशें की बहुत
मंजिलें मिलीं नहीं
आफतों के शूल से

ये जिंदगी घिरी रही
आह कभी भरी नहीं
हम डगर बुहारते
स्वप्न को संवारते
नवीन को निहारते ......

हसरतें निहारती
कराह थी कराहती
सुनि किसी ने टेर ना
बेबसी की खेर ना
फिर भी चलते हम रहे
अतीत को बिसारते
स्वप्न को संवारते
नवीन को निहारते

आँधियाँ घिर घिर घिरी
बिजलियाँ गिर गिर गिरी
संकल्प पर डिगा नहीं
हताश मन हुआ नहीं
हारा हौंसला नहीं
ख़ुशी के पल निखारते
स्वप्न को संवारते
नवीन को निहारते
प्रमिला आर्य

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