कहाँ हो तुम कन्हाई
धर्म की ऐसी
नृशंस हानि
देख कर भी
तुम्हारा कठोर हृदय
नहीं पिघल ??
इससे बढ़ कर
क्या कोई और
दुष्कृत्य होगा ???
जहां एक मासूम की
इज्जत को कर दिया
तार -तार
आँखें रोती
जार जार
झर- झर
झरते आंसू
अब और क्या
रह गया शेष ???
दिया था न उपदेश
तुम्हीं ने कान्हा
कि ----------
जब -जब भी
होती धर्म की हानि
मैं लेता हूँ अवतार .........
पूछती हूँ मैं तुमसे
क्या इससे भी बढ कर
कोई अधर्म है
जिसकी तुम्हे प्रतीक्षा है ???
तुम वाही हो ना कृष्ण----
जिसने भरी सभा में
चीर बढा कर
बचाई थी लाज चीर बढ़ा कर
आज कितनी द्रुपद सुताएं हैं ऐसी
जिनके चीर हरण
कर रहे अनेकों दु:शासन
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