फूल से
कीदेख कर ज़िंदादिली
पूछा मनुज ने फूल से
वन -उपवन क्यूँ महकाते हो
घिर के भी तुम शूल से
मुस्काया,फिर होले से
फूल बोला यों मनुज से
काँटों से क्यूँ मैं घबराऊं
मैं तो मेरा धर्म निभाऊं
- प्रमिला
फूल फूल से द्वेष है रखता कलियाँ बागी हो गई
रात के अंधियारों से डर के सूनी गलियां सो गईं
दहशतगर्दों की दहशत से मानवता की जड़ें हिल गई
प्यार दया करुणा ममता की पन्नों पर बातें रह गई
प्रमिला आर्य
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