Monday, 13 August 2012

होती हूँ जब तन्हा तन्हा
पग रखती तुम नन्हा नन्हा 
मन मानस के दरवाजे पर 
होले से सांकल खटकाती 
भूली बिसरी ताज़ा करके 
फिर अतीत की सैर कराती
तब होती हूँ मैं न अकेली 
क्या तुम मेरी सखी सहेली 

मन वीणा के तार छेड़ कर 
झंकृत तुम कर देती हो 
अधरों पर मुस्कान कभी बन 
हर्षित मुझको  कर  देती  हो 
कभी कुरेद कर ज़ख्मों को तुम 
व्यथा व्यथित कर देती हो 
संग में  मेरे हर पल खेली 
क्या तुम मेरी सखी सहेली

पूछूं तुमसे कौन सखी तुम 
रिश्ता नाता क्या है तुमसे 
संग सदा तुम मेरे रह कर  
लुका छिपी का खेल खेलती 
अब तो बतला दो तुम हेली 
क्यूँ करती हो तुम अटखेली  
क्या तुम मेरी सखी सहेली 

हंसकर होले से वो  बोली  
क्यूँ अधीर होती है पगली 
मैं तो तेरी साथिन असली 
साथ सदा मै सबके रहती
चाहे हो कोई  यतिsव्रती 
मैं हूँ तेरी सखी स्मृति-
हाँ  --
होती जब तू तन्हा तन्हा 
पग धरती में नन्हा नन्हा 
तब होती न तुम अकेली 
सच,मैं तेरी सगी सहेली 
प्रमिला आर्य 

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